विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में माता यशोदा कह रही हैं-) पथिक! इतनी बात (तुम श्यामसुन्दर से) कह देना- मेरे श्रेष्ठ कुमार! तुम्हारे बिना यहाँ जितने उत्पात हो रहे हैं, उनकी क्या चर्चा की जाय। पूतना और अघासुर यहाँ से हटाने पर भी नहीं हटते और व्रज के बालक अब वन में नहीं जाते, मानो वे व्रजरूपी पींजड़ें में बंद करके रखे गये हों और उससे निकलने के लिये व्याकुल हो रहे हों। छोटी-बड़ी सब गोपियाँ और गायें पीले रंग की और दुर्बल शरीर हो गयी हैं। हे तात! तुम्हारे बिना ये अत्यन्त अनाथ दिखायी पड़ती हैं; भला (अब) ये किसका सहारा लें? तब तो (ये) ‘कन्हैया! कन्हैया!’ कहकर पुकारती रहती थीं, अब (तुम्हारे बिना) इनका चित्त कैसे मानेगा? व्रज का आज तक यह व्यवहार है कि यहाँ कपट नहीं अपितु छल करने (भर) के लिये यहाँ के लोग (उसका) स्वाँग करते हैं। अब व्रज में दसों दिशाओं से दावानल की दीवारें उठा करती हैं, अतः आँखें बंद करके हम सब तुम्हारे नाम रूपी कवच की आड़ लेकर (उसके) सम्मुख रहती हैं। श्यामसुन्दर! तुमने जितने इन सब दुष्टों (असुरों) को मारा था, वे (अब) एक ही माता के पेट से फिर उत्पन्न हो गये हैं, इसलिये पुराना प्रेम समझकर हमारी (अब) शीघ्र सहायता करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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