विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुन्दर वियोग होने पर भी ये निर्लज्ज प्राण रह गये हैं। प्रियतम के पास रहने के आनन्द का जब स्मरण आता है, तब यह वेदना शरीर से सही नहीं जाती। रात-दिन खड़ी (उनका) मार्ग देखती हूँ। ये दुःख हमने न सुने थे और न देखे थे। जाते समय भी (मोहन को) देख नहीं पायी; क्योंकि आँखों में आँसू भर आये और मानो होड़ बद कर बह चले। (अब) लौटकर (अपना मुख हमारी ओर घुमाकर) अवधि बीतने पर वापस आने की जो बात (श्यामसुन्दर ने) कही थी, वही बात हृदय में बस रही है। श्यामसुन्दर के बिना हम ऐसी वियोग के वशीभूत हो रही हैं मानो बिना पर्व (अमावस्या-पूर्णिमा) के ही राहु ने सूर्य तथा चन्द्रमा को ग्रस लिया हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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