विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मेरी आँखें श्याम का दर्शन करने के लिये तरस रही हैं, (मैं) झरोखे (खिड़की) पर बैठी हुई (इस भाँति) झाँकती और पछताती रहती हूँ जैसे (मधुहीन) मधुमक्खियाँ हाथ (पंख) मलती हैं। (श्यामसुन्दर के) मुखरूपी सुधानिधि के रस से वियुक्त होने के कारण इनकी पाँखें (पलकें) एक पल को भी लगतीं नहीं और सदा एकटक (ही) देखती और इस भाँति उड़ने में असमर्थ (सी) जान पड़ती हैं, मानो अपनी सखियों को देखकर वे थकित (मूर्च्छित) हो गयी हों। वे (इस भाँति) बार-बार सिर पीटती और रोती हैं मानो वियोगरूपी ग्राह (मगर) (उन्हें) खाये जा रहा हो। ये तो उस (मनोहर) रूप के मिलने से हि जीवित रह सकती हैं, जिससे काट (बलपूर्वक पृथक) कर किनारे डाल दी गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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