विरह-पदावली -सूरदास
(137) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) नेत्रों ने श्रावण तथा भाद्रपद (के महीनों) को (भी) जीत लिया है। मानो इन्होंने ही सम्पूर्ण जल को लेकर अपने में रख लिया हो, जिससे समुद्र भी जल से ख़ाली हो गये हैं। वे (मेघ) तो झड़ी लगाकर दो दिन में खुल जाते हाँ, किंतु ये भूलकर भी रास्ता नहीं देते अर्थात निरन्तर वर्षा करते रहते हैं। वे (बादल) सबके सुख के लिये वर्षा करते हैं और ये (नेत्र) नन्दनन्दन के लिये (प्रेम में) बरस रहे हैं। वे (मेघ) परिमाण (जितनी वृष्टि होनी है उतनी) पूरा करके (वर्षा की) सीमा मान लेते हैं और ये किसी दिन अपनी धारा (ही) नहीं तोड़ते। (साथ ही इनमें) मैं यह उलटी बात होती देख रही हूँ कि ये (नेत्र प्रलय का) समय आये बिना ही संसार को डुबोये दे रहे हैं। मेरे मन में यह बात आती है कि (अब कदाचित्) ब्रह्मा जी का सायंकाल (प्रलय का समय) हो गया है। इसलिये (श्यामसुन्दर से) मिलन न हुआ तो इन्हीं दिनों में (नेत्रों की वर्षा के कारण निश्चित) प्रलय (होना) समझ लेना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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