विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) जाते समय (मैंने) माधव की बाँह न पकड़ ली-यही वेदना मन में है और तभी से बार-बार पश्चाताप करती हूँ। (मुझे) रात - दिन घर अथवा वन-कुछ भी (उसी प्रकार) अच्छा नहीं लगता, जैसे दावाग्नि से जल ने (झुलसने) पर हरिणी को करोड़ों-गुनी सघन छाया होते हुए भी श्यामघन के बिना तपन (शरीर की जलन) मिटती नहीं। विलाप करती हूँ, मन-ही-मन (इस प्रकार) अत्यन्त पछताती हूँ, जैसे चन्द्रमा को राहु ने पकड़ लिया हो। हमारे स्वामी (तो) दूर चले गये; अब बताओ, यह दुःख किससे कहा जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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