विरह-पदावली -सूरदास
(242) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) ‘सखी! चातक मुझे जीवित रखता है, जैसे रात में मैं बार-बार ‘पिय-पिय’ पुकारती हूँ, वैसे ही वह भी बार-बार गाता है। उसका कण्ठ अत्यन्त सुन्दर (सुरीला) है, पर प्रियतम के वियोग की जलन के कारण (उसकी) जीभ तालू से लगती ही नहीं (कभी चुप नहीं होता)। वह स्वयं भी (प्रियतम के नामरूपी) अमृतरस को पीता है और अपनी वाणी से वियोगिनियों को भी पिलाता है। यदि यह पक्षी सहायक न होता तो मेरे प्राण अत्यन्त दुःख पाते। उसी का जीवन सफल है, जो दूसरे के काम आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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