विरह-पदावली -सूरदास
पावस-प्रसंग (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! शिशिर, वसन्त और शरद्-ऋतु (तो) अपनी अवधि को पूर्ण करके चली गयीं; किंतु व्रज से वर्षा नहीं हटी। नेत्र रूपी बादल उमड़-उमड़कर वर्षा करते रहते हैं, (जिससे) हृदय पर (से बहने वाली) नदी पानी से भरी ही रहती है। उसमें कुंकुम और काजल कीचड़-समान बहते हैं, दोनों स्तन उसके कगारे खड़े हैं। उनमें ग्रीष्म-ऋतु प्रत्यक्ष है, जिसने अत्यन्त उष्णता धारण कर रखी है। स्वामी रूपी चन्द्रमा के बिना हम वियोगरूपी सूर्य से जली जा रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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