विरह-पदावली -सूरदास
(231) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) मानो सखी! सबको यही अच्छा लगता है कि अब मोहन व्रज में न आवें; क्योंकि अब उस देश में (जहाँ वे हैं) कोई भी श्यामसुन्दर को इस संकट के समय की सूचना नहीं देता। (क्या वहाँ) वन नये पत्ते, फूल और फल नहीं धारण करता? क्या वहाँ वसन्त में (भी) कोकिल गाती नहीं? सरोवरों में कमल पर प्रसन्न होकर भौंरे गुंजार नहीं करते? वायु (फूलों की) पराग उड़ाता नहीं? (क्या वहाँ) वर्षा-ऋतु में अनेक रंगों के सुन्दर बादल उमड़कर आकाश में नहीं छा जाते अथवा मेढक, मोर, कोकिल और चातक वहाँ बोलने में अपनी वाणी छिपा लेते हैं (बोलते नहीं, अन्यथा इनको देख-सुनकर मोहन को हमारी स्मृति अवश्य आ जाती)? ये सब तो यहीं हठपूर्वक रात-दिन निरन्तर, प्रत्यक्ष रहते हमारे वियोग दुःख को बढ़ाते हैं; किन्तु (इन निमित्तों के बिना भी) यदि श्यामसुन्दर दूसरे की पीड़ा नहीं जानते तो (वे) सर्वज्ञ क्यों कहलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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