विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) कोई (भूलकर भी) किसी के भी वश में न हो; क्योंकि जैसे चक्रवाक की सूर्य के वश हुई घुमती है, उसी प्रकार वह (श्यामसुन्दर का प्रेम भी) मुझे मोहित कर घुमा रहा है। हम स्त्रियाँ तो उनका महान प्रेम समझकर (गिरधारी) लाल पर रीझकर लट्टू (मोहित) हो गयीं, अतः उस अवधि की आशा रूप बन्धन में रात-दिन घूमती रहती हैं, कौन आकर (इस बन्धन को) सुलझाये। (उनके) साथ हमारे अंग-अंग विरह के कारण (उनके) अंग-अंग के प्रति (तरु में) बेल की भाँति उलझ गये हैं। अतः हमारे नेत्र निद्रा छोड़कर अधखिले पुष्प के समान सदा खुले रहते हैं, जो उनकी सौन्दर्यसुधा से ही शीतल हो सकते हैं। कहाँ तक वर्णन करूँ, हम उनके अत्यन्त अधीन हैं, इससे बुद्धिहीन होकर व्याकुल हो रही हैं। सूरदास जी कहते हैं-‘ऐसी प्रीति की रीति एवं प्रेम करने की पद्धति पर मैं बलिहारी जाता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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