विरह-पदावली -सूरदास
(234) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) इस (व्रज रूपी) वन में (ये) मयूर नहीं हैं, ये तो कामदेव के बाण हैं। (यहाँ) वियोग युद्धभूमि है, पुष्प (उस काम के) धनुष हैं और भौंरों को (अपने धनुष की) रस्सी (प्रत्यंचा) बनाकर उसने शत्रु के समान आघात किया है। (अब उसने) मेरे मन रूपी हिरन को चारों दिशाओं से घेर लिया है। (वह) अचूक (निपुण) शिकारी है, मूर्ख नहीं है; (देख न, पृथ्वी पर इतने) पुष्पों की शय्या और (आकाश में) बादल बनाकर वन और गगन दोनों जगह (शिकार) खेलने का कैसा विधान (उपाय) बनाया है। उमंग में भरे मत्त हाथियों के समान प्रेमरस से भरे (मेरे) मन को समझकर कामदेव (शिकार करने में) अत्यन्त आनन्दित हो रहा है। स्वामी! इस अवस्था में इन नाना प्रकार के रोगों से जीवनदान देते हुए आ मिलो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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