विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रह है- सखी!) स्वप्न में (ज्यों ही मेरे पास) श्यामसुन्दर आये, त्यों ही मैं (आनन्द से) किलक उठी (अत्यन्त प्रसन्न हो गयी)। किंतु (उस समय) मेरी सौत निद्रा मेरे लिये शत्रु बन गयी, तनिक देर की भी उनके साथ प्रीति सह न सकी। जब जागी तो (देखती हूँ कि मेरे पास) कोई नहीं, अतः (अब) रोकने पर भी हिलकियाँ बंद नहीं होतीं और शरीर में नख से चोटी तक फिर ऐसी जलन हो गयी, जैसे दीपक के साथ बत्ती का संयोग कर दिया गया हो। संतप्त होकर शरीर का चमड़ा-पीला हो पहिले की दशा में ही बदल गया हो। अब (यह पीड़ा) कैसे सही जायगी। हमारी दशा (तो) पत्थर के समान (सदा धूप में जलते पड़े रहने-जैसी) हो गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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