विरह-पदावली -सूरदास
(98) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) किस बात का पश्चाताप करती हो ? श्यामसुन्दर हमारी जाति-पाँति के तो हैं नहीं, फिर क्या (सम्बन्ध) मानकर हम दुःखी हों। अब न तो उनके मस्तक पर मयूरपिच्छ की चन्द्रिका है और न हृदय पर वनमाला। अब तमाल वृक्ष के समान श्यामसुन्दर के सुन्दर शरीर पर पुष्पों के आभूषण शोभित नहीं होते। (यही नहीं) अब कन्हैया ‘नन्दनन्दन’ तथा ‘गोपी-जन-वल्लभ’ (भी) नहीं कहलाते, अपितु बंदीजनों के द्वारा वासुदेव, यादवकुल के दीपक कहलाकर अपना वर्णन कराते हैं। उन्हें (अब) गोकुल का सुखद सम्बन्ध तथा हमारे शरीर का ध्यान भूल गया। श्यामसुन्दर के साथ हमारा वह सम्बन्ध तो मुरली के साथ (जब से उन्होंने मुरली छोड़ी तब से) ही छूट गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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