विरह-पदावली -सूरदास
(129) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) गोपाल को, पता नहीं किस देश में पाऊँगी। (उन्हें पाने के लिये अब मैं कानों में) सींग की मुद्रा पहिन और हाथ में खप्पर लेकर योगिनी का वेश बनाऊँगी। कथा (गुदड़ी) धारणकर विभूति (भस्म) रमाऊँगी, बालों को जटा बनाकर बाँधूँगी और इस प्रकार श्यामसुन्दर के लिये गोरख को जगाऊँगी (नाथ-पन्थ में दीक्षा लेकर गोरखनाथ के मन्त्र को जाग्रत् करूँगी) और शंकर जी का वेश धारण करूँगी। (अरी) वियोग की शिक्षा मानकर शरीर तथा मन को जलाकर उसकी भस्म चढ़ाऊँगी; क्योंकि श्यामसुन्दर के बिना (तो) हम ऐसी हो गयी हैं, जैसे मणि के बिना सर्प। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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