विरह-पदावली -सूरदास
(118) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) अब तो सोचने-सोचने में ही दिन बीते चले जाते हैं। नन्दनन्दन! तुम्हारे बिना इस गोकुल में रात्रि कल्प के समान (लंबी) हो गयी है। (अब वह) मनोहर गूँजने वाली वंशी की ध्वनि कानों से सुनी नहीं जाती। (हाय!) श्यामसुन्दर के रथ में सवार होकर जाते समय (तो) मैं उनको पकड़कर बैठ नहीं गयी और अब पश्चाताप करने लगी हूँ। अरे, कोई ऐसा है जो जाकर माधव से कहे कि (अब) मेरे प्राण धैर्य धारण नहीं कर पा रहे हैं, स्वामी! आपके दर्शन बिना चेतना चेतना लुप्त हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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