विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) प्रेम तो मरने का भी विचार नहीं करता। जैसे पतिंगा अग्नि की लौ देखकर उसमें जलते हुए भी अपने को सँभालता (बचाता) नहीं है। संगीत-प्रेम के कारण मृग का मन मोहित हो जाने के कारण (ही) ब्याध पास जाकर उसे बाण से मार देता है और प्रेम के कारण (ही) आकाश में उड़ता हुआ कबूतर (नीचे कबूतरी को देखकर) गिरते हुए भी अपने को सँभालता नहीं। श्रावण के महीने में पपीहा बोलता है और ‘पी कहाँ, पी कहाँ’ करता पुकारता ही रहता है। स्वामी के दर्शन के लिये इसी प्रकार की दशा (हमारी) है, यह समझ लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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