विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मुझे स्वप्न में भी सोच (चिन्ता) रहता है। जिस दिन से नन्दनन्दन का वियोग हुआ है, उसी दिन से यह बुरी दशा हो गयी है। (स्वप्न में ऐसा लगता है) मानो गोपाल मेरे घर आये और हँसकर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा; पर क्या करूँ, निद्रा मेरी शत्रु हो गयी, वह एक पल भी और नहीं रही (उसी क्षण टूट गयी)। जैसे चक्रवाकी (जल में अपना ही) प्रतिबिम्ब देख और उसे (ही) प्रियतम समझकर आनन्दित हो जाती है, किंतु निष्ठुर विधाता से मिला हुआ वायु जल को चंचल कर देता है (जिससे प्रतिबिम्ब लुप्त हो जाने पर वह दुःखित होती है, वही मेरी दशा है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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