विरह-पदावली -सूरदास
(213) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुन्दर फिर हमारे किस काम आयेंगे, (जब कि) वसन्त और ग्रीष्म-ऋतु बीत गयीं और काले मेघ आ गये हैं। (मैं) क्षण घर और क्षण में द्वार पर खड़ी धूप में सूख रही हूँ, (और यही नहीं) सखी! रात्रि में आकाश के तारे गिनते हुए (रात्रि के) चारों प्रहर बीतते हैं। श्यामसुन्दर! तुम्हारा नाम लेते-लेते और सब चर्चाएँ हमने भुला दी हैं। (सखी!) जिस दिन श्यामसुन्दर का वियोग हुआ, उसी दिन से (शरीर में) हड्डी और चमड़ा-भर रह गया है (अर्थात अत्यन्त क्षीण हो गयी हूँ)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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