विरह-पदावली -सूरदास
(208) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) वर्षा-ऋतु दल साजकर व्रज पर चढ़ आयी है और (उसने) दसों दिशाओं में बादलों के रूप में धूलि उड़ाकर गर्जनारूपी नगारा बजा दिया है। पपीहा, मयूर तथा दूसरे पशु-पक्षी उसकी पैदल सेना हैं (जिसमें) कोयल (उसका) जयघोष कर रही है। ये काली घटाएँ (नहीं) उस सेना के हाथी हैं, वज्रपात ही रथ के घोड़े हैं, बीच में बगुलों की पंक्ति ही घोड़ों की रास के रूप में सँजोयी है। बिजली ही सैनिकों के हाथ की तलवारें हैं और बूँदें ही बाण हैं। इस प्रकार सेना सजाकर उसके आगे चलने वाला सेनापति कामदेव बिना हिचक के व्रज पर चढ़ा चला आ रहा है। श्यामसुन्दर! हम तो अबलाएँ हैं, तुम्हें ही अपना बल समझती हैं; बताओ, अब क्या उपाय करें? अबकी बार इस अवसर पर आकर व्रज को उबार लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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