विरह-पदावली -सूरदास
(306) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रह है- सखी!) व्रजनाथ हमारे सभी सुख ले गये। हम उदास मुख से मथुरा की ओर देखती रहीं, पर उठकर उनके साथ नहीं गयीं। (अरी, उनके) श्याम शरीर को (एक बार) देख लेने पर हृदय से वह मूर्ति भूलती (हटती) नहीं; क्योंकि उन मदनगोपाल ने (अपने सौन्दर्य का) कुछ ऐसा जादू डाल दिया है कि कोई बात कहते नहीं बनती। नन्दनन्दन तो विदेश चले गये और हम हाथ मलती बैठी रह गयीं। हे स्वामी! तुम्हारे वियुक्त होने से हम सब अनाथ हो गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |