मूर्ति या शरीर आदि को अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए उसमें लगायी जाने वाली शोभावर्धक वस्तुएँ को ही श्रृंगार कहते है। प्राचीन समय और वर्तमान समय में 'श्रृंगार' का काफी महत्त्व रहा है, वैसे सभी धर्मो में श्रृंगार का अपना महत्त्व है। परन्तु हिन्दू धर्म में 'श्रृंगार' को बहुत ही आकर्षक वस्तुओं का प्रयोग करके बताया गया है हिन्दू धर्म में स्त्री के लिये सोलह श्रृंगार का वर्णन बड़ा ही मनमोहक बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह के समय अथवा उसके उपरान्त सोलह श्रृंगार करना बहुत ही आवश्यक बताया गया है।
- स्त्री का वास्तविक 'श्रृंगार' उसकी लज्जा होती है।
- प्रत्येक स्त्री 'श्रृंगार' के बिना अधूरी मानी जाती है।
- 'श्रृंगार' के बिना कोई भी स्त्री या पुरुष आकर्षक नही दिखता।
- विवाह के पशचात् प्रत्येक स्त्री के लिये सोलह 'श्रृंगार' बताया गया है।
उदाहरण:- राधा रानी के सम्बन्ध में 'गर्ग संहिता' में कथा आती है कि एक बार नंदबाबा बालक कृष्ण को लेकर अपनी गोद में खिला रहे थे। उस समय कृष्ण दो वर्ष सात माह के थे। उनके साथ दुलार करते हुए नंदबाबा वृंदावन के भांडीरवन में आ जाते हैं। इस बीच एक बड़ी ही अनोखी घटना घटती है।
अचानक तेज हवाएँ चलने लगती हैं, बिजली कौंधने लगती है, देखते ही देखते चारों ओर अंधेरा छा जाता है और इसी अंधेरे में एक बहुत ही दिव्य रौशनी आकाश मार्ग से नीचे आती है, जो नखशिख तक 'श्रृंगार' धारण किये हुए थी। नंद समझ जाते हैं कि ये कोई और नहीं स्वयं राधा देवी हैं, जो कृष्ण के लिए इस वन में आई हैं। वे झुककर उन्हें प्रणाम करते हैं और बालक कृष्ण को उनकी गोद में देते हुए कहते हैं कि- "हे देवी! मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि भगवान कृष्ण मेरी गोद में हैं और आपका मैं साक्षात दर्शन कर रहा हूँ।"
- इन्हें भी देखें: राधा-कृष्ण का विवाह
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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