विरह-पदावली -सूरदास
(316) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) अब हमारे नेत्र (एकदम) अनाथ हो गये। सखी! सुना जाता है कि माधव मथुरा से और दूर चले गये। उनके मथुरा रहने पर चित्त में (मिलन की) आशा थी और (ब्रज से उनका) सम्बन्ध भी चलता था; अब तो हमारे मन से वे भीम के (द्वारा फेंके गये) हाथी हो गये। सुना जाता है कि वे अपार दूर अगम्य स्थान पर गये हैं। (उन्होंने) समुद्र के किनारे एक नगर बसाया है, जिसका नाम द्वारिका है। (उन्होंने) समुद्र के किनारे एक नगर बसाया है, जिसका नाम द्वारिका है। (अब तो मैं) यह शरीर अपने स्वामी को सौंप (उनके निमित्त त्याग) कर और दूसरा जन्म लेकर वहाँ (द्वारिका) जाऊँगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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