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'''सूरदास ए लरिका दोऊ, इन्ह कब देखे मल्ल-अखारे ।।'''</poem> | '''सूरदास ए लरिका दोऊ, इन्ह कब देखे मल्ल-अखारे ।।'''</poem> | ||
− | ([[सूरदास|सूरदास जी]] के शब्दों में [[यशोदा|यशोदा जी]] कहती हैं- ‘ये कमल-समान नेत्र वाले (दोनों) मुझे [[प्राण|प्राणों]] से भी अधिक प्रिय हैं, इन्हें (मैं) कैसे [[मथुरा]] भेजूँ। (ये) [[राम]]-[[कृष्ण]] दोनों ही तो बालक हैं। [[अक्रूर|अक्रूर जी]]! सुनो, मैंने बहुत कष्ट उठाकर इनका पालन किया है। ये, भला, राजसभा (के शिष्टाचार) को क्या जानें, | + | ([[सूरदास|सूरदास जी]] के शब्दों में [[यशोदा|यशोदा जी]] कहती हैं- ‘ये कमल-समान नेत्र वाले (दोनों) मुझे [[प्राण|प्राणों]] से भी अधिक प्रिय हैं, इन्हें (मैं) कैसे [[मथुरा]] भेजूँ। (ये) [[राम]]-[[कृष्ण]] दोनों ही तो बालक हैं। [[अक्रूर|अक्रूर जी]]! सुनो, मैंने बहुत कष्ट उठाकर इनका पालन किया है। ये, भला, राजसभा (के शिष्टाचार) को क्या जानें, इन्होंने तो (अभी) गुरुजनों और ब्राह्मणों को भी प्रणाम करना नहीं सीखा है। [[मथुरा]] में असुरों के समूह रहते हैं, वे योधा हत्या करने वाले हैं तथा हाथों में सदा तलवार लिये रहते हैं और ये दोनों लड़के हैं, इन्होंने अखाड़े के पहलवानों को भला कब देखा है।’ |
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01:03, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण
विरह-पदावली -सूरदास
गोपिकाओं की उद्विग्नता (सूरदास जी के शब्दों में यशोदा जी कहती हैं- ‘ये कमल-समान नेत्र वाले (दोनों) मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, इन्हें (मैं) कैसे मथुरा भेजूँ। (ये) राम-कृष्ण दोनों ही तो बालक हैं। अक्रूर जी! सुनो, मैंने बहुत कष्ट उठाकर इनका पालन किया है। ये, भला, राजसभा (के शिष्टाचार) को क्या जानें, इन्होंने तो (अभी) गुरुजनों और ब्राह्मणों को भी प्रणाम करना नहीं सीखा है। मथुरा में असुरों के समूह रहते हैं, वे योधा हत्या करने वाले हैं तथा हाथों में सदा तलवार लिये रहते हैं और ये दोनों लड़के हैं, इन्होंने अखाड़े के पहलवानों को भला कब देखा है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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