विरह-पदावली -सूरदास
(128) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! वह देश दिखला दो (जहाँ मोहन हैं)। क्या कहूँ, श्यामसुन्दर के बिना इस व्रज में निवास करके (मुझे) सुख का लेश भी नहीं मिला। अक्रूर ने जो मुँह-मीठी बात कही, उस पर हमने शिशुओं (राम-श्याम) को (उनके साथ) जाने दिया। (पर उस समय हमने) मृग की भाँति व्याध के वेश को जाना नहीं, जो विश्वास दिलाकर प्राण ले लेता है। मैंने शहद के समान मोहन को (हृदय में) संचित करके रखा था; किंतु वे (अक्रूर) भौंरे की भाँति आये और आँखों में अवधि के आश्वासनरूप छींटे डालकर (हमारे सहारे को) वहाँ (मथुरा में) ले गये जहाँ अन्याय सुना जाता है। मोहन के बिना व्रज में रहते हमें आज तीसरी संध्या (तीसरा दिन) हो गयी, किंतु हमारे ये पतित प्राण अब (भी न जाने) शरीर में क्यों बने हुए हैं (कुछ समझ में नहीं आता)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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