विरह-पदावली -सूरदास
(107) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) इस समय ही (मोहन) वन से व्रज आते थे। दूर से ही वे ओठों पर वंशी रखकर बार-बार बजाते थे। वे चतुर-हृदय कभी किसी प्रकार अत्यन्त ऊँचे स्वर से गाते और कभी सुन्दर नाम ले-लेकर धौरी (उजली) गाय को बुलाते थे। इस प्रकार घनश्याम (अपनी) वाणी सुनाकर (हमारे) मूर्च्छित (सुप्त) काम को जगाते तथा दिन के अन्त में (वे) अपने आगमन सुख रूपी उपचार (औषध) से विरह के ज्वर को नष्ट करते थे। ये घन के समान सुन्दर तथा सम्पूर्ण रसों की निधि धीरे-धीरे प्रेम के प्यासे नेत्रों में सुरुचि उत्पन्न करके उनके बल को बढ़ाते और आनन्द प्रकट कराते (आते) थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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