विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (एक गोपी कह रही है-) मेघ! (क्या) तुम उस देश जा रहे हो, जहाँ श्रीकृष्ण द्वारिका में सम्पूर्ण लोकों के नरेश हैं। तुम तो अत्यन्त शीतल हो, अमृत (के समान जल) के देने वाले हो। (वहाँ जाकर मोहन को) यह उपदेश करो कि कमललोचन! वियोगिनी (व्रज-गोपियों) ने एक संदेश कहा- ‘हे सम्पूर्ण जगत के वन्दनीय श्रीनन्दनन्दन! आप श्रेष्ठ नट के समान वेश धारणकर और स्वामी! अपना काम बनाकर (अब) विदेश में जाकर रह गये हो। आपका जो भक्त-वत्सलता का सुयश है, वह झूठा न पड़ जाय-मुझे इसी की चिन्ता है, अतः एक बार कृपा करके मिल जाओ।’ यही बात भली प्रकार से सूरदास जी भी कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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