विरह-पदावली -सूरदास
(एक दूसरी गोपी कह रही है-) ‘सखी! देखो, वह रथ जा रहा है, कमललोचन श्यामसुन्दर के कंधे का पीताम्बर अलौकिक छटा से उड़ रहा है। जब अटारियों की आड़ में (अक्रूर) रथ ले जाते हैं, तब (गोपियों का) शरीर वाणीरहित बन जाता है (अर्थात वे बोल नहीं पातीं)। भूमि पर वे ऐसी काँपने लगती हैं मानो सोने के बने केले को वायु हिला रहा हो। अक्रूर (उनके) मधु (माधुर्य रूप श्याम) को छीनकर ले गये और वे (सब गोपियाँ) मधुमक्खी के समान व्याकुल हो रही हैं। सूरदास जी कहते हैं- अब (उनकी ऐसी दशा है) मानो उस सुन्दररूप-रूपी जल के दर्शन के बिना मछली या कमल हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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