विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (कोई गोपी कह रही है-) सखी! मेरे नेत्रों ने वियोग की लता बोयी है, (जिसकी) जड़ नेत्रों के जल (आँसुओं) से (बराबर) सींचे जाने के कारण पाताल तक पहुँच गयी। अपने स्वभाव से वह लता बढ़ी और (अब उसकी) छाया (भी) घनी हो गयी, सखी! अब उसे कैसे पृथक् करूँ, वह तो पूरे शरीर पर फैलकर छा गयी है। किसी (अन्य) के मन की दशा कौन जाने, (किंतु) यहाँ (तो) वह (वियोग लता) क्षण-क्षण में नवीन होती रहती है और स्वामी के वियुक्त होने से (अब इसमें) प्रेम के अंकुर (भी) लग गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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