विरह-पदावली -सूरदास
(264) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) हाथ में (अब) वीणा लेना छोड़ दे (उसे त्याग दे); (क्योंकि उसके बजने से चन्द्रमा का) रथ (इस भाँति) थक (चलते-चलते रुक) गया है, मानो (उसके वाहन) मृग मोहित हो गये हों और इस कारण (उस) चन्द्र का ढलना (अस्त होना) नहीं हो रहा हो। प्रेम के फंदे में पड़ना बड़ा दारुण होता है; जिस पर यह बीतती है, वही (इसकी पीड़ा) जानता है। जिसके प्राणनाथ वियुक्त हो जाते हैं, उसके नेत्रों से आँसू गिरना नहीं रुकता। उसे शीतल चन्द्रमा अग्नि के समान (दाहक) लगता है। (फिर) बतलाओ तो किस प्रकार धैर्य धारण किया जाय। उन सुन्दर कमल-लोचन का वियोग हो जाने पर (सुख के) सब उपायों का करना झूठा (व्यर्थ) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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