विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब कुछ दूसरी ही चाल (प्रथा) चल पड़ी है, (देखो न), मदन गोपाल के बिना इस व्रज की सब बात बदल गयी है। घर पर्वत की गुफा के समान हो गया और शय्या सिंह से भी अधिक कठोर (असह्य) हो गयी है। सखी! चन्द्रमा शीतल कहा जाता है, पर मैं उससे अधिक जली (संतप्त) हूँ। सखियाँ (मुझे) कस्तूरी, चन्दन, कपूर, कुंकुम (केसर) लाकर सींचती (उसका लेप करती) हैं; किंतु वियोग के ज्वर के कारण उनमें से एक भी लाभ नहीं करता और न वह अच्छा ही लगता है। स्वामी के बिना (प्रेम की) अमृतलता अब विष के फल फल रही है और न श्यामसुन्दर के चन्द्रमुख के बिना मन (रूपी) कुमुदिनी की कलि का विकसित होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस पंक्ति के दो पाठ मिलते हैं, प्रथम पाठ है- 'गृह कंदरा समान सेजविष, सिंघहु चाहि बली।' दूसरा पाठ है- 'गृह कंदरा समान सेज भई, सिघंहु चाहि बली।' 'गिरि-कंदरा.' पाठ किसी प्रतिका नहीं है। ऊपर लिखे दोनो पाठ बहुप्रति-सम्मत हैं। एक तीसरा पाठ भी मिलता है, जैसे- 'दुग्ध-फेन सम सेज भई हरि, गृह आरन्य-थली।' अत: प्रथम पाठ के अनुसार यहाँ अर्थ होगा- 'घर कंदरा-समान तथा सेज (शय्या) विष के समान अथवा सिंह से भी भी अधिक कठोर (असह्य) हो गयी है।' और तीसरे पाठ का अर्थ होगा कि दूध- फेन के समान (स्वच्छ-शीतल) शय्या हरि-सिंह के समान कठोर अथवा सूर्य के समान तापकारी और घर वनस्थली के समान डरावना हो चला है।'
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