विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मेरी व्रज में दोनों प्रकार से हानि हुई-प्रथम तो कल्पवृक्ष-रूप श्यामसुन्दर (यहाँ से) चले गये और दूसरे वियोग (रूपी बेला) का अंकुर उत्पन्न हो गया। जैसे रसायन बनाने वाला स्वर्ण के लिये पारे को अग्नि लगा देता है। जब (सोना बनाने वाला) मन लगाकर (उत्साह से उसे) देखने लगता है, तब (झट) कह देता है-(हाय!) शीशी फूट गयी। (अथवा) जैसे मल्लाह के बिना कोई सुन्दरी (पति-गृह जाते समय) किसी एक नौका में बैठ जाय और डूबने लगे, उस समय उसका शरीर थाह न देख सके और इस प्रकार पति से भी दैव उसे मिलने न दे। इसी प्रकार लड़-मरकर (बड़े कष्ट से) झगड़ा करके (लोगों की बातें अनसुनी करके) कुछ भूमि (श्यामसुन्दर रूपी आधार) पायी और यश तथा अपयश (लोगों की निन्दा-प्रशंसा) में समय बिताया; पर अब फल (परिणाम) पाकर कहती हैं-सब ककड़ियाँ कड़वी ही उत्पन्न हुई हैं (अन्ततः दुःख ही मिला है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस पद का पाठ चार हस्त-लिखित प्रतियों में नीचे लिखे अनुसार है-
'ब्रज बसि द्वै बिधि हानि भई।
इक हरि गए कलपतरु, दुजें उपरी बिरह जई॥
जैसे हाटक हित रसायनी पारे आगि दई।
जब मन लग्यौ, दुष्ट तब बोल्यौ, सीसी फूटि गई॥
ज्यौं मलाह-बिन नाव पाई कैं, सुंदरि लै चढाई।
बूड़न लागी माझ-धार जब, पतबारी न दई॥
लरि, मरि, झगरि भूमि कछु पाई, जस-अपजस जुतई।
अब लै 'सूर' खेत में उपजी, सब ककरी करई॥
हमारी अल्पमति से यह पाठ और विशेषकर तृतीय पक्तिं का पाठ सुन्दर है और वही अर्थ-संगति के साथ उचित है।
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