विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! इन नेत्रों से (तो) मेघ भी हार गये; (क्योंकि) ये बिना ऋतु के ही रात-दिन वर्षा करते रहते हैं; (जिससे इनमें के) दोनों तारे सदा धुँधले बने रहते हैं। लंबी श्वासरूपी अत्यन्त तेज वायु चलती है, जिसने सुख (रूपी) अनेक वृक्षों को गिरा दिया है। अतः दुःखरूपी वर्षा-ऋतु से सताये हुए वचनरूपी पक्षी मुख को ही (अपना) घोंसला बनाकर (उसमें) बस गये हैं (बोलना भी प्रायः बंद हो गया है)। अंजन से मिलकर काली हुई बूँद छिप-छिपकर कंचुकी (चोली) पर (इस भाँति) पड़ रही हैं, मानो शंकर जी ने दो मूर्तियाँ बनाकर पृथक-पृथक पत्तों से बनी कुटिया में धर (बैठाल) दी हों। घुमड़-घुमड़कर (बार-बार अश्रु भर-भरकर नेत्र) जल गिराते हैं (जिससे आँखों के आगे छाये) अन्धकार को देखकर (मुझे) भय लगता है। अब, भला, बिना प्रियतम गिरिधरलाल के व्रज को डूबने से कौन बचा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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