विरह-पदावली -सूरदास
(46) (श्रीनन्द जी कहते हैं-) ‘गोपाल राय! मैं तुम्हारे चरण छोड़कर (व्रज) नहीं जाऊँगा। मेरे मोहन! तुम्हें मथुरा छोड़कर व्रज में जाकर मैं क्या लूँगा? जब यशोदा उठकर मेरे सामने आयेगी, तब जाकर उससे क्या कहूँगा ? वह सबेरे के समय दही मथना छोड़कर किसे कलेऊ देगी ? तुम्हारा यह प्रताप जाने बिना बारह वर्ष तक हमने तुम्हारे साथ धृष्टता का व्यवहार किया, अब तुम गर्ग (मुनि) के वचनों के प्रमाण से वसुदेव जी के पुत्र प्रख्यात हो गये। शत्रुओं को मारकर क्यों तुमने हमारे सब काम किये और क्यों सब विपत्तियों नष्ट कीं। (यही करना था तो पहिले ही) अपने कमल के समान हाथ पर से गोवर्धन पर्वत को क्यों नहीं गिरा दिया, जिससे सब ब्रजवासी (उसी समय) दबकर मर जाते। अब दिन में सखाओं को साथ लिये पुकार-पुकार कर गायें नहीं चराओगे ? और जब (वन से घर को) संध्या के समय नहीं लौटोगे, तब मेरे प्राण तुम्हारा दर्शन किये बिना कैसे रहेंगे ?’ सूरदास जी कहते हैं- (यह कहते-कहते नन्दराय की) ऊर्ध्व (मृत्यु-समय-जैसी) श्वास चलने लगी, चरणों की गति रुक गयी, नेत्रों से आँसू बहने लगे और उनकी मरणासन्न (-जैसी) दशा हो गयी। (श्यामसुन्दर) वियुक्त होते समय नन्द जी को जो वेदना हुई, उसका वर्णन मुझसे नहीं हो पाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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