विरह-पदावली -सूरदास
राग नट नारायण (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मन का दुःख मन में समाता नहीं। रात-दिन कठोर वेदना सह रही हूँ, जिसका वर्णन करने की चेष्टा करने पर भी हो नहीं पाता। श्यामसुन्दर के साथ जितने सुख भोगे थे, वे सब अब इस शरीर के शत्रु हो गये हैं। स्वाती की बूँद तो एक है, परंतु सीप में पड़कर उत्तम मोती और केले के पत्तों में पड़कर विष हो जाती है। (ऐसे ही) मोहन की स्मृति उनके मिलन में सुखद थी और वियोग में घोर दुःखदायी हो गयी। वही व्रज है, वे ही व्रजसुन्दरियाँ हैं; किंतु आनन्द की क्रीड़ा कुछ और ही (दुःखमयी) हो गयी है। प्रेम करके हम जो विपत्ति भोग रही हैं उसे दूसरा कौन समझ सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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