विरह-पदावली -सूरदास
(197) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! यह पीड़ा किससे कही जाय। हम तो यज्ञ के (बलि) पशु के समान हो गयी हैं, कहाँ तक (कितना) दुःख सहा जाय। हम कामिनियाँ (श्यामसुन्दर की) प्रियतमा होने पर भी दिन-रात कहीं सुख नहीं पातीं। हाय! मन में रहने वाली पीड़ा इस प्रकार मन को मथने लगती है कि हृदय के भीतर (ही) हम जलती रहती हैं। कभी मन में ऐसी बात आती है कि जाकर यमुना में बह जाना चाहिये। अपने स्वामी परम चतुर श्यामसुन्दर के बिना हम किसकी होकर रहें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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