विरह-पदावली -सूरदास
राग धनाश्री (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) सलोने नेत्र वाले श्यामसुन्दर कब फिर (यहाँ) लौटकर आयेंगे ? वे जो (पलाश के) लाल-लाल फूलों से फूली डालें दिखायी पड़ती हैं, वे श्यामसुन्दर के बिना फुलझड़ी-जैसी लगती हैं, जिनसे बार-बार अंगारे झड़ रहे हैं। सखी! मैं फूल चुनने नहीं जाऊँगी, श्यामसुन्दर के बिना ये फूल कैसे। अरी सखी! सुन, मुझे श्रीराम की शपथ, वे फूल तो मुझे त्रिशूल-जैसे (वेधक) लगते हैं। सखी! जब उस यमुना के किनारे मैं जल भरने जाती हूँ, तब मेरे इन नेत्रों के जल से (वह) यमुना बार-बार पूर्ण हो उमड़कर बहने लगती है। अरी सखी! इन नेत्रों के जल के कारण शय्या घर में नौका के समान हो गयी (तैरने लगी) है; मैं चाहती हूँ कि उसी पर बैठकर (अब) श्यामसुन्दर के पास चली जाऊँ। लाल! हमारे प्यारे प्राण अब ओष्ठों पर आ गये हैं (निकलने वाले ही हैं); अतः कुंजविहारी स्वामी! (तुम) दौड़कर मिल क्यों नहीं जाते ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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