विरह-पदावली -सूरदास
राग मारू (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! यदि कोई मुझे (इतने पर भी) द्वारिका के देश ले चले तो मैं अपने केशों की जटा बनाकर भी उसके साथ चलने के लिये तैयार हूँ। (यदि कोई) अस्त-व्यस्त (बात) बोलकर (कुछ) पूछेगा तो अपने जान ठीक ही उत्तर दूँगी; जो कोई जैसा भी कहेगा, वैसा ही वेश बना लूँगी। यद्यपि हम व्रज की नारियाँ (ग्रामीण) हैं और वे (श्यामसुन्दर) युवतियों के झुंड (सोलह सहस्र रानियों) के स्वामी हैं तथा राजा हैं (वहाँ हमारी कोई पूछ नहीं है)। फिर भी कुमुदिनी तो चन्द्रमा के बढ़ने पर ही प्रेम से प्रफुल्लित होती है (उनके वैभव की वृद्धि से हमें दुःख नहीं, प्रसन्नता ही है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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