विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! अब मैं क्या करूँ ? सखी! नन्दनन्दन को देखे बिना मुझसे क्षण भर भी रहा नहीं जाता। माता-पिता के (साथ अन्य) घर के सब डाँटने हैं कि (तूने) इस कुल की मर्यादा को मटियामेट कर दिया और बाहर के लोग मुझ पर (यह कहकर) हँसते हैं (मेरी हँसी करते हैं) कि ‘यह कन्हैया की प्रेमिका आयी।’ किंतु मेरा चित्त तो सदा (कुम्हार के) चाक पर चढ़ा-जैसा (घूमता) रहता है, उसे न घर अच्छा लगता, न आँगन, क्योंकि प्यारे गिरिधारी लाल ने हँसकर मुझे गले से लगाया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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