विरह-पदावली -सूरदास
(144) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मेरे दोनों नेत्र अत्यन्त दुःखी हैं। जिस दिन से श्यामसुन्दर मथुरा गये, उस दिन से कभी भूलकर भी सोयी नहीं हूँ। (मेरे ये) नेत्र सदा भरे ही रहते हैं, इनका जल समाप्त नहीं होता और न ये यही जानते हैं कि कब दिन हुआ और कब रात हुई। (ये) अत्यन्त दुःखी हैं और भ्रम (शोक) में अत्यन्त उन्मत्त हो गये हैं। (मोहन को) देखे बिना शान्ति (ही) नहीं पाते। यदि कभी पलक भी नहीं खोलती तो (ये) यही चाहते हैं कि कामदेव के समान (श्यामसुन्दर की) सुन्दर मूर्ति (जो हृदय में स्थित है उसे ही) देखा करें और (ध्यानस्थ होने के कारण) ये जो एक क्षण में शरीर को छोड़ देते (शरीर को भूल जाते) हैं सो पीड़ा का मार्ग पकड़कर श्यामसुन्दर को लेने जाते हैं। (मेरी) जिह्वा ने ही यह नियम लिया है कि मुख से (श्यामसुन्दर की बात छोड़कर) दूसरी बात बोलती ही नहीं। जब से स्वामी (मुझसे) वियुक्त हुए हैं, तब से सभी (मुझे) दुःख देने लगे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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