विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) पथिक! उन श्यामसुन्दर से कहना कि (आजकल) यमुना अत्यन्त काली दिखायी देती है; क्योंकि वह आपके वियोगरूपी ज्वर के द्वारा जलायी गयी है। वह पर्वतरूपी पलँग से पृथ्वी में घँसती-सी गिरती है और उसके शरीर में तरंगरूपी अत्यन्त तड़पन है। (उसके) तट पर जो रेत है, वही औषध का चूर्ण है तथा जल का प्रवाह (ही) पसीने की धारा बह रही है। उसके किनारे जो कुश तथा काँस हैं, वे ही उसके बिखरे केश और कीचड़ ही (उसकी) मैली साड़ी है। (धारा में) जो भँवरें पड़ती हैं, वही (उसका) उद्भ्रान्त दशा में अत्यन्त दीन तथा दुःखी होकर सब दिशाओं में भटकते फिरना है। रात-दिन चक्रवाकी जो ‘पी-पी’ रटती है, वही मानो उसकी दशा सूचित करने वाली है। स्वामी! जो दशा यमुना की है, वही दशा (आपके बिना) हमारी हो गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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