विरह-पदावली -सूरदास
(सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी! अब) वन में फिर से मोर बोलने लगे, (जिससे ऐसा जान पड़ता है) ये बार-बार बादलों की गर्जना सुनकर श्रीनन्दनन्दन का स्मरण करते हैं। किंतु (ऐसे समय) जिनके प्रियतम विदेश चले गये हैं, वे नारियाँ बुरी दशा में पड़ गयी हैं। मुझे श्यामसुन्दर से वियोग होने का बहुत दुःख है, बलवान विरह बना ही रहता है। पपीहा, कोकिल, मेढक, चकोर (आदि) सब चोर (आज) परस्पर मिल गये हैं। स्वामी! शीघ्र क्यों नहीं मिलते, (मेरे) जीवन का किनारा (अन्त) आ रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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