विरह-पदावली -सूरदास
(237) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! (इन) मयूरों ने (तो) हमसे शत्रुता ठान ली है; (ज्यों-ज्यों) मेघ गरजते हैं, त्यों-त्यों ये (मयूर) हठपूर्वक बोलते हैं (और) रोकने पर भी (ये) नहीं मानते। श्यामसुन्दर ने इनके पंख ले-लेकर समको दिखा-दिखाकर मस्तक पर धारण किये, इसीलिये ये (अब) हम वियोगिनियों को कुछ समझते ही नहीं। मोहन ने इन्हें ढीठ बना दिया है। सखी! कौन जाने किसलिये ये हमसे हठ करते हैं। श्यामसुन्दर तो विदेश में जा बसे, किंतु ये वन (व्रज) से (अब भी) हटते नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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