विरह-पदावली -सूरदास
(215) (एक गोपी कह रही है-) घटा! तू जाकर (अब) मथुरा पर वर्षा कर। यहाँ तो कृष्णचन्द्ररूपी श्याम घन के बिना सब वियोगिनी (व्रजनारीरूप) लताएँ सूख गयी हैं। चन्द्रमा (उन्हें) ऐसा लगता है मानो प्रचण्ड तेज के साथ सूर्य तप रहा हो, जिससे चित्त व्याकुल होकर घबराने लगता है। सखी! क्या उपचार (ओषधि) करें, तनिक भी जलन शान्त नहीं होती। जब-जब कमललोचन (मोहन) की स्मृति आती है, तभी-तभी शरीर संतप्त हो उठता है। सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के गुणों का बार-बार स्मरण करके सखियों (गोपियाँ) म्लान हो रही (सूख रही) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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