विरह-पदावली -सूरदास
राग जैतश्री (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! श्यामसुन्दर से भेंट नहीं हो पायी और जीवन ऐसे ही (व्यर्थ) व्यतीत हो रहा है। (उनका) मार्ग देखते दिन और रात्रियाँ युग के समान व्यतीत होती हैं। सखी! पपीहे और कोकिल के शब्द कानों से सुने नहीं जाते (उनसे बड़ी वेदना होती है) तथा चन्दन और चन्द्रमा की किरणें ऐसी (उष्ण) लगती हैं, मानो निर्मूल सूर्य की हों। शरीर ने आभूषण इस प्रकार त्याग दिये, जैसे युद्ध में व्याकुल (योधा) कवच उतार देता है तथा कामदेव के बाण उसी प्रकार (चुपचाप) सहती हूँ, जैसे (अन्तिम समय) भीष्मपितामह ने अर्जुन के बाण सहे थे। शय्या पर पड़ा-पड़ा शरीर सूख गया; (फिर भी) चंचल प्राण जाते नहीं, वे चित्त में सूर्य के दक्षिणायन होने की अवधि (श्याम-सूर्य के दक्षिणायँ होने पर छः महीने में आयेंगे) समझकर अटके (रुके) हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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