विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) विधाता ने अब मुझे मानो फिर से बना दिया है। सखी! नहीं जानती कि किस कारण से उसी (वियोग की) ज्वाला में जल नहीं गयी, नेत्रों के जल में डूबकर मर नहीं गयी और न प्रेम की अग्नि में प्रज्वलित होकर समाप्त हुई। वियोग की अग्नि और (नेत्रों के) जल-प्रवाह-इन दोनों के बीच में पड़कर भी कैसे बच गयी। सम्पूर्ण लोकों की जो कुछ शोभा थी, (वह सब) लेकर श्याम ने द्वारिका में एकत्र कर दी है। (मैं) वहीं के समुद्र और बड़वानल में (जाकर) रेत के समान आकर अटक गयी हूँ। क्या कहा जाय, (उन) श्रीबलराम के छोटे भाई का सुयश कहाँ नहीं हो रहा है। श्यामसुन्दर की माया ने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर लिया है। (मैं उनका) वही मुख देखकर विमुग्ध हुई हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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