विरह-पदावली -सूरदास
राग कल्यान (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुन्दर (आज मथुरा) जाना चाहते हैं, (यह अभी) एक सखी ने आकर कहा है (और कहा है-) मोहन और बलराम (जाने के लिये) रथ पर बैठ गये हैं तथा अक्रूर (उस पर) चढ़ना चाहते हैं। यह सुनकर (वह गोपी) विरहवश (इस प्रकार) स्तम्भित रह गयी (मानो किसी ने उसे) आग लगा दी हो। (और जो वहाँ थीं, वे इस प्रकार) चक्कर खा-खाकर धरती (पृथ्वी) पर गिर पड़ी, मानो आग की लपट से (झुलसकर) लताएँ गिर पड़ी हों। फिर क्या था, शीघ्र ही मेघ ने बरसकर सुरति (ध्यान) के जल से उनका स्पर्श कराया। (अब वे सब-की-सब उठकर) श्रीनन्द जी के द्वार पर आयीं और उन्होंने देखा दोनों कुमार रथ पर बैठे हैं और यशोदा जी पृथ्वी पर लोट रही हैं। इस प्रकार श्यामसुन्दर का निष्ठुर रूप उन्होंने देखा। (वे देखकर परस्पर कहने लगीं-अरे! इनके) कौन पिता और कौन माता हैं, सम्पूर्ण सृष्टि के रचने वाले ब्रह्मा तो ये ही हैं (इसीलिये इन्होंने) किसी के साथ किसी सम्बन्ध की स्मृति नहीं रखी, (इतने में ही) अक्रूर भी वाणी से श्रीभगवन्नाम लेते हुए रथ पर शीघ्रता से चढ़ बैठे। प्रभु के कोमल शरीर को देखकर (वे गोपियाँ) बेचैन हो रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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