विरह-पदावली -सूरदास
(226) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! वर्षा-ऋतु आ गयी, पर श्यामसुन्दर नहीं मिले। (अब) आकाश में मेघ गरज रहे हैं, बिजली (भी) चमकती दीख रही है। (इस वर्षा ने) मयूरों को वन में बुला लिया है और मेढ़कों को भी (वर्षा ऋतु ने निद्रा से) जगा दिया है (वे टर्रा रहे हैं)। सखी! पपीहे का शब्द सुनते ही मैं व्याकुल हो गयी। इन्द्र ने धनुष लेकर क्रोध करके बाण छोड़े हैं, वे ही जलती हुई दारुण बूँदे हैं, जो सही नहीं जातीं। पत्र लिखावाकर यात्री के द्वारा शीघ्र भिजवा दो। श्रीयदुनाथ यदि मेरी पीड़ा जान लेंगे तो आ जायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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