विरह-पदावली -सूरदास
राग कान्हरौ (सूरदास जी के शब्दों में एक सखी दूसरी सखी से श्रीराधा के सम्बन्ध में कह रही है-) सखी! वह कामिनी (मिलन की चाह रखने वाली) हथेली पर कपोल और भुजा (कुहनी) जंघा पर रखकर पृथ्वी पर नखों से रेखाएँ लिखती (बनाती) और सोच-विचार (चिन्ता) करती है। उन कामदेव के समान सुन्दर मुख एवं वेश वाले मोहन का ध्यान धरती रहती है। (वह) बार-बार नेत्रों में जल भर लेती है (और कहती है-) 'बिना गणना के ये जो दिन (श्याम के वियोग के कारण व्यर्थ) बीत रहे हैं, उन्हें धिक्कार है, धिक्कार है; (क्योंकि) जिनके गुण सहस्र मुख वाले शेषनाग भी नहीं जान सके, वे कमल लोचन मथुरा चले गये।’ सखी! सुन, कन्हैया ने (लौटने की) जो अवधि दी थी, वह झूठी निकली; अब रात्रि में बिजली देखकर (वह) कैसे जीवित रहे। अरी, हमारे स्वामी (तो उस पर) कुछ ऐसा टोटका (जादू) कर गये हैं कि नट के समान अनेक प्रकार से नाचती (व्याकुल होती) दिखायी पड़ती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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