विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) माधव! इसीलिये हम इस संसार में जी रही हैं कि (अपने) मोहन से (अपने) पुराने प्रेम को फिर से नया कर लें (फिर तुम्हारा सानिध्य पायें)। कहाँ तो तुम वहाँ समुद्र-किनारे (द्वारिका में) यदुकुल के स्वामी (बनकर रहते हो) और कहाँ हम सब गोकुल में रहने वाली, कहाँ हमारा वह वियोग और कहाँ यह अब (अकल्पित) मिलन। समय की गति (ही) चक्र के समान घूमने वाली है। कहाँ सूर्य और राहु; कहाँ उनके मिलन (ग्रहण) का यह अवसर; किंतु (इस ग्रहण के बहाने हमारे तुमसे मिलन का) यह संयोग विधाता ने बिना दिया। (विधाता के) उसी (ग्रहण के योग बनाने रूपी) उपकार के कारण आज इन नेत्रों ने श्यामसुन्दर का दर्शन करके शान्ति पायी। तब (वियोग के समय) और अब (मिलन के समय) यह अत्यन्त कठिन (भेद की) स्थिति है कि उस (अपार) पीड़ा को (यहाँ) एक पल के लिये भी हमने अनुभव नहीं किया। स्वामी ने हमें अपना समझकर सबसे (समान) प्रियत्व माना (प्रेम व्यक्त किया)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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