विरह-पदावली -सूरदास
राग रामकली (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) श्याम के चल देने पर यदि प्राण रह जायँ तो इन्हें धिक्कार है। कहाँ वह (उनके साथ का) सुख और कहाँ अब हृदय को वज्र के समान बनाकर असहनीय दुःख सहना। कहाँ हम अपने गले में श्यामसुन्दर की भुजाओं को रखकर उनके अधरामृत का पान करती थीं और उस मुख चन्द्र की अलौकिक शोभा देखते हुए (हमारे) नेत्र रूपी चकोर उस (चन्द्रमा) के अमृत को पीते थे। तब जिसके कारण संसार के लोगों ने हमारी हँसी उड़ायी थी तथा हमने भी सब अभिमान छोड़ दिया था, (आज) वही उत्तम सम्पत्ति हमसे बिछुड़ रही है, कर्म (प्रारब्ध) का भोग कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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