विरह-पदावली -सूरदास
(308) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) उनको (अब) व्रज में रहना अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वहाँ वे तीनों लोकों के राजा हो गये हैं। यहाँ (व्रज में आकर) गोप क्यों कहलायें। वहाँ तो वे छत्र लगाकर सिंहासन पर शोभित होते हैं; (भला, अब) बछड़ों के साथ कौन दौड़े। (साथ ही) वहाँ तो अनेक प्रकार के रेशमी वस्त्र हैं, (तब) कंबल पर कौन संतोष करे। वे तो नन्द-यशोदा को भी भूल गये, फिर हमारी कौन चर्चा है। (सखी!) हमारे स्वामी ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि (अब) पत्र लिखकर भी (यहाँ) नहीं भेजते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |